गोपाल चंद्र मुखोपाध्याय, जिन्हें लोकप्रिय रूप से “गोपाल पाठा” कहा जाता था, बंगाल के एक प्रसिद्ध समाजसेवी, राष्ट्रनिष्ठ और सनातन समाज के रक्षक थे। वे 1946 के कोलकाता दंगों के दौरान सनातन समाज की रक्षा के लिए खड़े हुए और आत्मरक्षा के संगठित प्रयासों के लिए जाने जाते हैं।
गोपाल पाठा का जन्म 1913 में कोलकाता में हुआ था। उनका परिवार मांस व्यापार करता था, इसलिए उन्हें “पाठा” (बकरे के लिए प्रयुक्त शब्द) उपनाम मिला। बचपन से ही वे साहसी, निडर और संगठन क्षमता वाले व्यक्ति थे।
गोपाल पाठा सामान्य जीवन जीते हुए भी समाज की समस्याओं के प्रति सजग रहते थे। वे मानते थे कि यदि समाज पर आक्रमण होता है तो उसकी रक्षा करना हर व्यक्ति का कर्तव्य है। उनका स्वभाव नेतृत्वपूर्ण और संघर्षशील था।
1946 में जब कोलकाता में सांप्रदायिक दंगे भड़के, तब गोपाल पाठा ने युवाओं को संगठित किया
और “सनातन रक्षा समिति” का गठन किया।
उन्होंने नारा दिया कि –
“यदि हमारी जाति और समाज पर हमला होगा, तो हम चुप नहीं बैठेंगे।”
उनके नेतृत्व में हजारों लोग आत्मरक्षा के लिए तैयार हुए।
गोपाल पाठा ने अपने संगठन के माध्यम से दंगों में पीड़ित सनातन परिवारों की रक्षा की। महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित स्थानों तक पहुँचाया गया। उनके नेतृत्व से सनातन समाज में आत्मविश्वास और संगठन की भावना बढ़ी।
गोपाल पाठा का व्यक्तित्व दृढ़ और वीरतापूर्ण था। वे अन्याय का तुरंत जवाब देने में विश्वास रखते थे। उनका जीवन दिखाता है कि संगठन और साहस से समाज की रक्षा की जा सकती है।
5 अक्टूबर 1980 को गोपाल पाठा का निधन हुआ। लेकिन वे आज भी एक निडर समाजरक्षक और प्रेरणास्रोत के रूप में याद किए जाते हैं।
गोपाल पाठा का नाम उन वीरों की श्रेणी में लिया जाता है जिन्होंने समाज की रक्षा को अपना धर्म माना। वे बंगाल और कोलकाता के इतिहास में सनातन आत्मसम्मान के प्रतीक के रूप में अमर हैं।
गोपाल पाठा हमें सिखाते हैं कि समाज की रक्षा करना हर नागरिक का कर्तव्य है। उनका जीवन बताता है कि संगठित होकर और साहस के साथ अन्याय का सामना करना ही सच्चा धर्म है।
✨ "गोपाल पाठा, आपके साहस और नेतृत्व को शत्-शत् नमन।"
"आपकी गाथा सदैव हमें आत्मरक्षा, संगठन और राष्ट्रप्रेम का संदेश देती रहेगी।"
हम सनातनी वेदांती आपकी शौर्यगाथा को दीपक की लौ की तरह जलाकर आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाएँगे। ✨