श्रीकृष्णदेवराय (1509–1529 ईस्वी) विजयनगर साम्राज्य के सबसे महान सम्राटों में से एक थे। वे तुलुव वंश से संबंधित थे और उनके शासनकाल को "विजयनगर का स्वर्णयुग" कहा जाता है। वे अपने साहस, न्यायप्रियता, प्रजावत्सलता और साहित्यप्रेम के लिए प्रसिद्ध थे। उनका शासन दक्षिण भारत में शांति, समृद्धि और सांस्कृतिक उत्कर्ष का अद्वितीय काल था।
श्रीकृष्णदेवराय ने विजयनगर साम्राज्य को शक्ति, न्याय और संगठन के आधार पर समृद्ध बनाया। उन्होंने प्रजा के हित में कर प्रणाली में सुधार किए और सिंचाई व्यवस्था को सुदृढ़ किया। उनके शासनकाल में व्यापार और कृषि को नई ऊँचाइयाँ मिलीं। प्रशासन में उनकी नीतियाँ न्यायप्रिय और प्रजावत्सल थीं, जिससे प्रजा उन्हें "कनकभुजंग" के नाम से पुकारती थी।
कृष्णदेवराय एक अद्भुत योद्धा और रणनीतिकार थे। उन्होंने बहमनी सल्तनत, उड़ीसा के गजपति शासकों और बीजापुर सुल्तानों को पराजित किया। उनकी वीरता से विजयनगर साम्राज्य का विस्तार कावेरी से लेकर गोदावरी तक हुआ। उनके युद्ध कौशल और पराक्रम ने दक्षिण भारत में उन्हें "अपराजित सम्राट" का स्थान दिलाया।
श्रीकृष्णदेवराय केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि धर्म और संस्कृति के महान संरक्षक भी थे। वे भगवान वेंकटेश्वर (तिरुपति बालाजी) के परम भक्त थे और अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। उनके दरबार में "अष्टदिग्गज" नामक आठ महान कवि और विद्वान थे, जिनमें अल्लसानी पेद्दन प्रमुख थे। स्वयं कृष्णदेवराय ने तेलुगु काव्य "आमुक्तमाल्यदा" की रचना की, जो साहित्य का अनमोल रत्न है।
श्रीकृष्णदेवराय की वीरता, धर्मनिष्ठा और साहित्यप्रेम आज भी हर भारतीय के लिए प्रेरणा है। वे सच्चे अर्थों में "भारत पुत्र" और "धर्मवीर" थे। हे वेदांतियों, अपने इस महान पूर्वज से प्रेरणा लो और अपने जीवन में साहस, संस्कृति और धर्म की राह अपनाओ। याद रखो कि सच्चा सम्राट वही है, जो तलवार से राज्य जीतता है और ज्ञान से हृदय, और कृष्णदेवराय ने यह उदाहरण हमें दिया है। उनका योगदान और प्रेरणा भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेगा।