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माँ रानी कर्णावती

माँ रानी कर्णावती

माँ रानी कर्णावती (चित्तौड़, 16वीं शताब्दी) मेवाड़ की वीरांगना और महाराणा सांगा की रानी थीं। वे संकट के समय धैर्य, दूरदर्शिता और स्वाभिमान की प्रतीक मानी जाती हैं। महाराणा सांगा के पश्चात जब मेवाड़ पर बाहरी आक्रमणों का संकट बढ़ा, तब माँ माँ रानी कर्णावती ने चित्तौड़गढ़ के संरक्षण की जिम्मेदारी संभाली और प्रजा की रक्षा का संकल्प लिया।

शासन और प्रशासन

माँ रानी कर्णावती ने अल्पवयस्क उदय सिंह के अभिभावक के रूप में राज्य-कार्यों का संचालन किया। उन्होंने किले की सुरक्षा, सेना के मनोबल और रसद-वितरण को सुव्यवस्थित रखा। कठिन परिस्थितियों में भी कर-व्यवस्था को संतुलित रखते हुए प्रजा-कल्याण और किले की मरम्मत-विस्तार के कार्य कराए।

चित्तौड़ की रक्षा और निर्णायक घेराबंदी

गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह द्वारा चित्तौड़ पर घेराबंदी (1534–1535 ई.) के समय माँ रानी कर्णावती ने किले की रक्षा का नेतृत्व किया। किले के सीमित संसाधनों, निरंतर हमलों और सहायता की अनिश्चितता के बीच भी उन्होंने सेनानायकों और वीर राजपूतों के साथ डटे रहने का आह्वान किया। परंपरा में यह भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने बाह्य सहायता हेतु संदेश भेजे और हर संभव राजनयिक प्रयास किए।

जौहर और साका

जब शत्रु-सेना का दबाव असहनीय हो गया और किले के टूटने का संकट सामने आया, तब माँ माँ रानी कर्णावती ने चित्तौड़ की स्त्रियों के साथ जौहर का निर्णय लिया—आत्मसम्मान और धर्म की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग का वह क्षण इतिहास में अमर हो गया। इसके उपरांत वीरों ने साका कर रणभूमि में अंतिम सांस तक युद्ध किया। चित्तौड़ की माटी में उस दिन स्वाभिमान, त्याग और शौर्य की अखंड ज्वाला प्रज्ज्वलित हुई।

महानता और विरासत

माँ रानी कर्णावती का जीवन हमें संकट की घड़ी में दृढ़ संकल्प, कर्तव्यनिष्ठा और आत्मसम्मान का संदेश देता है। चित्तौड़ का जौहर और साका राजपूत परंपरा की उस अमिट विरासत का प्रतीक है, जिसने “धर्म और मान” की रक्षा हेतु सर्वस्व अर्पित किया। मेवाड़ की इतिहास-गाथा में माँ रानी कर्णावती का नाम स्त्री-शक्ति और राष्ट्र-गौरव की अमर अनुप्रेरणा बना हुआ है।

माँ रानी कर्णावती की स्मृति हमें सिखाती है कि स्वाभिमान की रक्षा ही सच्चा धर्म है और कठिनतम परिस्थितियों में भी संकल्प, साहस और त्याग राष्ट्र की ढाल बनते हैं।
वेदांतियों, अपने जीवन में धर्म, मर्यादा और कर्तव्य को सर्वोपरि रखो—जैसे चित्तौड़ की इस वीरांगना ने रखा।
याद रखो: “जहाँ मान की ज्वाला जलती है, वहाँ पराजय नहीं—अमरता जन्म लेती है।”