माँ ऊदा देवी पासी (†1857) भारत की स्वतंत्रता संग्राम की पहली दलित वीरांगनाओं में से एक थीं। वे लखनऊ के सिकंदर बाग युद्ध में अंग्रेज़ों के खिलाफ अदम्य साहस के साथ लड़ीं और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं। उनका बलिदान यह प्रमाण है कि स्वतंत्रता की ज्वाला केवल राजाओं और रईसों तक सीमित नहीं थी, बल्कि समाज के हर वर्ग और विशेषकर दलित समाज ने भी भारत की आज़ादी के लिए अपना अमूल्य योगदान दिया।
ऊदा देवी पासी उत्तर प्रदेश के पासी समुदाय से थीं। उनका विवाह माखन पासी से हुआ था, जो नवाब वाजिद अली शाह की सेना में सैनिक थे। पति से प्रेरित होकर ऊदा देवी ने भी रणभूमि में कूदने का निश्चय किया। उनका जीवन इस बात का प्रतीक था कि देशप्रेम और त्याग के लिए किसी जाति या वर्ग की सीमा नहीं होती।
1857 के विद्रोह के दौरान ऊदा देवी ने महिलाओं की एक टोली बनाई और अंग्रेज़ी सेना के खिलाफ मोर्चा संभाला।
16 नवम्बर 1857 को लखनऊ के सिकंदर बाग की लड़ाई में उन्होंने असाधारण पराक्रम दिखाया।
कहा जाता है कि वे पीपल के पेड़ पर चढ़कर अंग्रेज़ सिपाहियों पर गोलियाँ चला रही थीं।
उनके द्वारा मारे गए सैनिकों की संख्या 30 से अधिक मानी जाती है।
उनकी सटीक निशानेबाज़ी से अंग्रेज़ों की सेना भयभीत हो उठी।
जब अंग्रेज़ों को पता चला कि कोई महिला पेड़ पर बैठकर उनकी सेना को मार रही है, तो उन्होंने चारों ओर से घेरकर गोलीबारी की। अंततः ऊदा देवी पासी वीरगति को प्राप्त हुईं। उनका बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अमर अध्याय बन गया।
ऊदा देवी पासी का बलिदान हमें यह सिखाता है कि देश की रक्षा के लिए नारी शक्ति किसी से कम नहीं। वे दलित समाज की गौरवमयी ध्वजवाहक थीं, जिन्होंने 19वीं सदी में ही समाज और इतिहास को नई दिशा दी। लखनऊ और समूचे भारत में उनका नाम आज भी गर्व और सम्मान के साथ लिया जाता है। वे नारी साहस, पराक्रम और बलिदान की अमर मिसाल हैं।
🙏 माँ ऊदा देवी पासी, आपके अदम्य साहस और बलिदान को शत्-शत् नमन। आपकी शौर्यगाथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अमर ज्योति है, जो आने वाली पीढ़ियों को सदा प्रेरित करती रहेगी। 🙏