माँ रानी दुर्गावती (1524 – 24 जून 1564) गोंडवाना की महान शासिका, अदम्य साहस और आत्मसम्मान की प्रतीक वीरांगना थीं। वे बाल्यकाल से ही घुड़सवारी, धनुर्विद्या और शस्त्र-विद्या में निपुण थीं। जनकल्याण, न्याय और धर्मपालन उनके शासन की पहचान थे। उनके नेतृत्व में गोंडवाना साम्राज्य संगठित, समृद्ध और सुरक्षित रहा।
राजा दलपत शाह के पश्चात रानी दुर्गावती ने राज्यभार संभाला और बालक नारायण शाह के साथ संरक्षिका के रूप में शासन किया। उन्होंने कर व्यवस्था को न्यायसंगत बनाया, सीमांत सुरक्षा मज़बूत की, सिंचाई, सड़कों और व्यापार को बढ़ावा दिया। प्रजा-कल्याण के कार्यों से वे “जननी-राजा” के रूप में आदरणीय बनीं।
1564 ई. में मुगल सम्राट अकबर के सेनापति आसफ़ खाँ ने गोंडवाना पर आक्रमण किया। रानी ने नर्मदा–हाथीघाटी–नरrai (नरई) क्षेत्र में सीमित संसाधनों के बावजूद घोर प्रतिरोध किया और शत्रु को भारी क्षति पहुँचाई। जब घिरने का संकट आया तो उन्होंने आत्मसमर्पण के स्थान पर स्वाभिमान का मार्ग चुना और रणभूमि में प्राण अर्पित कर अमर हो गईं।
माँ रानी दुर्गावती केवल पराक्रमी योद्धा ही नहीं, बल्कि न्यायप्रिय, प्रजावत्सल और संस्कृति की संवाहक थीं। उनका जीवन स्त्री-शक्ति, नेतृत्व और देशभक्ति का अमर उदाहरण है। मध्यभारत की अस्मिता और स्वराज्य की चेतना को उन्होंने नई दिशा दी। भारत की वीरांगनाओं में उनका नाम सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।
माँ रानी दुर्गावती की शौर्यगाथा हमें सिखाती है कि स्वाभिमान से बड़ा कोई वरदान नहीं, और स्वतंत्रता से बड़ा कोई धर्म नहीं। वेदांतियों, अपने जीवन में साहस, अनुशासन और धर्मनिष्ठा को अपनाओ—जैसे माँ रानी दुर्गावती ने अपनाया था। याद रखो: “समर्पण नहीं, संकल्प ही वीरत्व का शिरोमणि है; और मातृभूमि हेतु बलिदान—अमरत्व का सेतु।” चलो, उनके आदर्शों से प्रेरणा लेकर हम भी न्याय, धर्म और राष्ट्र-गौरव के सच्चे रक्षक बनें।