माँ रानी लक्ष्मीबाई (19 नवंबर 1828 – 18 जून 1858) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महान वीरांगना और झाँसी की रानी थीं। वे साहस, आत्मसम्मान और मातृभूमि के प्रति समर्पण का अद्वितीय प्रतीक मानी जाती हैं। बाल्यकाल से ही वे घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और युद्धकला में निपुण थीं। स्वतंत्रता के लिए उनका संघर्ष हर भारतीय के हृदय में आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
लक्ष्मीबाई झाँसी राज्य की महारानी थीं। पति गंगाधर राव की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने "लैप्स पॉलिसी" के अंतर्गत झाँसी हड़पने की कोशिश की। लेकिन रानी ने दृढ़ निश्चय के साथ घोषणा की – “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।” इसके बाद उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ वीरतापूर्ण संघर्ष छेड़ दिया और झाँसी की रक्षा के लिए मोर्चा संभाला।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में माँ रानी लक्ष्मीबाई ने केंद्रीय भूमिका निभाई। उन्होंने अपनी सेना के साथ अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया। घुड़सवार सेना का नेतृत्व करते हुए उन्होंने अभूतपूर्व साहस दिखाया और अनेक बार अंग्रेजों को पराजित किया। ग्वालियर के युद्ध में उन्होंने अंतिम सांस तक वीरता से लड़ते हुए मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।
माँ रानी लक्ष्मीबाई केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि महिला सशक्तिकरण और स्वतंत्रता की प्रतीक भी थीं। उनकी गाथा आज भी हर भारतीय को साहस, आत्मबल और देशभक्ति की प्रेरणा देती है। वे अपने अदम्य साहस और बलिदान के कारण भारतीय इतिहास की अमर नायिका बन गईं।
माँ रानी लक्ष्मीबाई की शौर्यगाथा हमें यह सिखाती है कि सच्चा बलिदान मातृभूमि के लिए होता है। वेदांतियों, अपने जीवन में साहस, आत्मसम्मान और त्याग को अपनाओ, जैसे झाँसी की रानी ने अपनाया था। याद रखो किमृत्यु से बड़ा जीवन वही है, जो राष्ट्र और धर्म के लिए जिया जाए। चलो, उनके बलिदान से प्रेरणा लेकर हम भी अपने समाज और राष्ट्र के सच्चे रक्षक बनें। "साहस से स्वतंत्रता, त्याग से अमरता, और मातृभूमि से ही सच्ची पहचान मिलती है।"