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भारत पुत्र: नाना साहेब पेशवा

वीर कुंवर सिंह

नाना साहेब पेशवा (1824 – 1859 के बाद लापता) 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक थे। उनका असली नाम **धुंडु पंत** था। वे मराठा साम्राज्य के अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। अंग्रेजों ने उनकी पेंशन बंद कर दी और पेशवाई की उपाधि को मान्यता नहीं दी, जिससे वे अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति के प्रबल नेता बने।

प्रारंभिक जीवन

नाना साहेब का जन्म 1824 में महाराष्ट्र में हुआ। वे बचपन से ही मराठा संस्कृति और योद्धा परंपरा से प्रभावित थे। बाजीराव द्वितीय ने उन्हें गोद लेकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। परंतु अंग्रेजों ने "लैप्स की नीति" के अंतर्गत उनकी दत्तक संतान होने के कारण पेशवाई और उससे जुड़ी सुविधाओं को मान्यता नहीं दी। इस अन्याय ने उनके हृदय में अंग्रेजों के विरुद्ध गहरा आक्रोश भर दिया।

1857 के संग्राम में भूमिका

1857 के विद्रोह में नाना साहेब ने सक्रिय नेतृत्व किया। उन्होंने कानपुर को विद्रोह का केंद्र बनाया और अंग्रेजों को कड़ा संघर्ष दिया। उनके साथ तात्या टोपे, आज़ादी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई और अन्य क्रांतिकारी जुड़े। नाना साहेब ने दिल्ली में बहादुर शाह ज़फर को भारत का सम्राट मानते हुए स्वतंत्रता संग्राम को व्यापक रूप दिया।

कानपुर का संग्राम

नाना साहेब ने कानपुर की अंग्रेजी छावनी को घेर लिया। अंग्रेजों ने आत्मसमर्पण किया, परंतु विद्रोहियों और अंग्रेजों के बीच विश्वासघात और भीषण नरसंहार की घटनाएँ हुईं, जिससे यह युद्ध और भी उग्र हो गया। इसके बाद अंग्रेजों ने उन्हें क्रांति का मुख्य दोषी मानकर पीछा करना शुरू कर दिया।

अंतिम समय

कानपुर और आसपास के क्षेत्रों से हारने के बाद नाना साहेब नेपाल की ओर चले गए। उनके बाद का जीवन रहस्यमय रहा और वे 1859 के बाद इतिहास से गायब हो गए। कुछ मान्यताओं के अनुसार वे नेपाल में गुप्त रूप से रहते रहे, तो कुछ कथाओं में कहा गया कि उन्होंने संन्यासी का जीवन अपनाया।

नाना साहेब पेशवा की गाथा हमें यह सिखाती है कि अन्याय और अपमान सहकर चुप रहना उचित नहीं, बल्कि उसका प्रतिकार करना ही सच्ची वीरता है। वे केवल पेशवा के वारिस नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के महानायक थे। उनका नाम भारतीय स्वतंत्रता की गाथा में सदैव अमर रहेगा।

✨ "स्वतंत्रता के लिए ज्वाला भड़काना ही सच्चा नेतृत्व है – यही नाना साहेब पेशवा का अमर संदेश है।" ✨
यह संदेश हर वेदांती के हृदय में सदैव जीवित रहना चाहिए।